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ग़ज़ल
बर्क़ गिरती है जिधर आँख उठा कर देखें
हिद्दत-ए-हुस्न से आसाब पिघल जाते हैं
मोहम्मद आफ़ताब अहमद साक़िब
ग़ज़ल
ख़ून में ऊँचे चनारों के न हिद्दत आ सकी
यूँ ब-ज़ाहिर सब्ज़ पत्ते मुश्तइल होते गए
ज़हीर सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
'हसन' में हिद्दत-ए-हिज्राँ से जल भी सकता हूँ
कि मेरा जिस्म तिरे साएबाँ से बाहर है