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ग़ज़ल
बख़्त बरगश्ता वो नाराज़ ज़माना दुश्मन
कोई मेरा है न ऐ 'हिज्र' किसी का मैं हूँ
हिज्र नाज़िम अली ख़ान
ग़ज़ल
उम्र हँस-खेल के इस तरह गुज़ारी ऐ 'हिज्र'
दोस्त का दोस्त रहा यार का मैं यार रहा
हिज्र नाज़िम अली ख़ान
ग़ज़ल
किसी दिन मुझ को ले डूबेगा हिज्र-ए-यार का सदमा
चराग़-ए-हस्ती-ए-मौहूम होगा गुल समुंदर में
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
हिज्र की शब में तिरे ख़त को पढ़ा करते हैं हम
नींद आए तो दिये की लौ को मद्धम भी करें