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ग़ज़ल
मज़ाहिर इस के क्यूँ मुतलक़-पने सूँ होवेंगे ख़ारिज
यू सूरत ग़ौर सूँ तो देक आईने में हासिल है
क़ुर्बी वेलोरी
ग़ज़ल
आज हैं शाख़ पे जिस तौर से पज़मुर्दा 'नज़ीर'
कल इसी तरह से हम होवेंगे मुरझाए हुए
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
हर इक की बात सुनने पर तवज्जोह मत कर ऐ ज़ालिम
रक़ीबाँ उस सीं होवेंगे जुदा आहिस्ता आहिस्ता
वली दकनी
ग़ज़ल
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
वाह इस तिफ़्ली ओ इस शक्ल-ए-जवानी के बदल
सामने होवेंगे इक मर्द-ए-कुहन आईने में
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
किस तरह रोज़-ए-हश्र वो होवेंगे सुर्ख़-रू
देखा किए हैं याँ जो ख़त-ओ-ख़ाल की किताब