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ग़ज़ल
मैं भी रौशन हूँ जमाल-ए-रुख़-ए-जानाँ में कहीं
ख़ाक परवाना भी है शो'ला-ए-उर्यां में कहीं
इशरत ज़फ़र
ग़ज़ल
ख़ाल क्यूँकर न क़रीब-ए-रुख़-ए-जानाँ होता
दौलत-ए-हुस्न का कोई तो निगहबाँ होता
मुंशी ठाकुर प्रसाद तालिब
ग़ज़ल
वफ़ा बराही
ग़ज़ल
जल्वा-सामाँ रुख़-ए-जानाँ न हुआ था सो हुआ
ज़र्रा ज़र्रा मह-ए-ताबाँ न हुआ था सो हुआ
असअ'द बदायुनी
ग़ज़ल
इस तरह गेसू-ए-शब-गूँ हैं रुख़-ए-जानाँ के पास
जैसे छाई हो घटा काली मह-ए-ताबाँ के पास
ख़ंजर अजमेरी
ग़ज़ल
जल्वा-ए-हुस्न-ए-करम का आसरा करता हूँ मैं
जो ख़ता मुमकिन है मुझ से बे-ख़ता करता हूँ मैं