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ग़ज़ल
कुफ़्र अपना ऐन दीं-दारी है गर समझे कोई
इज्तिमा-ए-सुबहा याँ मौक़ूफ़ है ज़ुन्नार पर
गोया फ़क़ीर मोहम्मद
ग़ज़ल
ये राह-ए-दूर-ओ-दराज़ मुझ को दिखाती लाई यही तमाशा
क़दम क़दम इज्तिमा भी है नफ़स नफ़स इंतिशार भी है
इज्तिबा रिज़वी
ग़ज़ल
कब वो हँस हँस कर मुझे गिर्या-कुनाँ देखा किए
इज्तिमा-ए-बर्क़-ओ-बाराँ का समाँ देखा किए
कौकब मुरादाबादी
ग़ज़ल
होता है जुज़्व कुल की हक़ीक़त का आइना
क़तरों का इज्तिमा है दरिया कहें जिसे