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ग़ज़ल
तिरे आने का दिन है तेरे रस्ते में बिछाने को
चमकती धूप में साए इकट्ठे कर रहा हूँ मैं
अहमद मुश्ताक़
ग़ज़ल
गुज़र जाता था सारा दिन इकट्ठे सीपियाँ चुनते
समुंदर के किनारे पर रहा करते थे हम दोनों
हसन अब्बासी
ग़ज़ल
इकट्ठे कर के तेरी दूसरी तस्वीर खींचूँगा
वो सब जल्वे जो छन छन कर तिरी चिलमन से निकलेंगे
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
दो दो कर के बोसा-ए-मौऊद जब मैं ने गिने
हँस के पूछा हैं इकट्ठे ये किए कब कब के दो