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ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
ज़िद्दी वहशी अल्लहड़ चंचल मीठे लोग रसीले लोग
होंट उन के ग़ज़लों के मिसरे आँखों में अफ़्साने थे
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
मिरा इल्हाद तो ख़ैर एक ला'नत था सो है अब तक
मगर इस आलम-ए-वहशत में ईमानों पे क्या गुज़री
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
आग़ाज़-ए-मोहब्बत है और दिल यूँ हाथ से निकला जाता है
जैसे किसी अल्हड़ का आँचल सरका जाए ढलका जाए
नुशूर वाहिदी
ग़ज़ल
हक़-परस्ती की जो मैं ने बुत-परस्ती छोड़ कर
बरहमन कहने लगे इल्हाद का बानी मुझे
चकबस्त बृज नारायण
ग़ज़ल
कितने अल्हड़ सपने थे जो दूर सहर में टूट गए
कितने हँसमुख चेहरे फ़स्ल-ए-बहाराँ में ग़मनाक हुए
ज़हीर काश्मीरी
ग़ज़ल
महीनों से जो ख़ाली था वो कमरा उठ गया शायद
ये अल्हड़-पन ये मासूमी नए मालूम होते हैं
मुज़फ़्फ़र हनफ़ी
ग़ज़ल
बस्ती से गुज़रें तो सारे पनघट की अल्हड़ अबलाएँ
इन की प्यास बुझाने को ख़ुद उमड-घुमड बादल बन जाएँ