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ग़ज़ल
फ़रहत कानपुरी
ग़ज़ल
आख़िर-ए-शब में ही असरार-ए-बदन खुलते हैं
चाँद करता है तिरे हक़ में दु'आ आख़िर-ए-शब
शहज़ाद अंजुम बुरहानी
ग़ज़ल
हर तरफ़ थी आलम-ए-इम्काँ में जो फैली हुई
मेरे असरार-ए-हक़ीक़त की ज़िया थी मैं न था