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ग़ज़ल
इसी काएनात में ऐ 'जिगर' कोई इंक़लाब उठेगा फिर
कि बुलंद हो के भी आदमी अभी ख़्वाहिशों का ग़ुलाम है
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
इंक़लाब-ए-पय-ब-पय हर गर्दिश ओ हर दौर में
इस ज़मीन ओ आसमाँ को क्या समझ बैठे थे हम
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
कह रहे हैं चंद बिछड़े रहरवों के नक़्श-ए-पा
हम करेंगे इंक़लाब-ए-जुस्तुजू का एहतिमाम
साग़र सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
उठी फिर दिल में इक मौज-ए-शबाब आहिस्ता आहिस्ता
कुछ आया ज़िंदगी में इंक़लाब आहिस्ता आहिस्ता
शकील बदायूनी
ग़ज़ल
अहद-ए-इंक़लाब आया दौर-ए-आफ़्ताब आया
मुंतज़िर थीं ये आँखें जिस की इक ज़माने से