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ग़ज़ल
जाने ख़्वाबीदा कि बेदार है मुंसिफ़ का ज़मीर
हम तो इंसाफ़ की ज़ंजीर हिला भी आए
बद्र-ए-आलम ख़ाँ आज़मी
ग़ज़ल
वाह-रे इंसाफ़ इतना भी न वाँ पूछा गया
ये क़ुसूर-ए-हुस्न है या अस्ल में तासीर-ए-इश्क़
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
निज़ाम-ए-इंसाफ़-ओ-अदल पर ये न जाने कैसा ज़वाल आया
बरहना हो कर सिसक रही हैं सदाक़तें सब
असलम हनीफ़
ग़ज़ल
मुन्फ़इल होने पे भी मेरी ख़ताओं का शुमार
कैसा दस्तूर-ए-अदालत इस जगह पाता हूँ मैं