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ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
कलाम-ए-'मीर'-ओ-'मिर्ज़ा' क़ाबिल-ए-सद-नाज़ है 'अफ़्क़र'
मगर 'मोमिन' का अंदाज़-ए-बयाँ कुछ और कहता है
अफ़क़र मोहानी
ग़ज़ल
हमें मज़मून लिखना था मोहब्बत और वहशत पे
सो लिख आए थे हम भी फिर कलाम-ए-'मीर' काग़ज़ पर
अरीब उस्मानी
ग़ज़ल
मोहब्बत ख़ून बन कर जिस्म में दौड़े तो क्या कहना
बस इतना कह दिया बाक़ी कलाम-ए-'मीर' पढ़ लेना
मोहम्मद आज़म
ग़ज़ल
दिल्ली का मर्सिया हो या दिल में वुफ़ूर-ए-ग़म
देखें कलाम-ए-'मीर' को क्या इस की शान है
अब्दुल क़ादिर अहक़र अज़ीजज़ि
ग़ज़ल
अपने उस्ताद के अंदाज़ पे मेरा है कलाम
मुझ को 'नाज़िम' हवस-ए-पैरवी-ए-'मीर' नहीं
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम
ग़ज़ल
था ब-क़ौल-ए-'मीर' दिल्ली एक शहर-ए-इंतिख़ाब
क्या ख़बर थी वो भी ख़्वाबों का नगर हो जाएगा
जगदीश जैन
ग़ज़ल
नस्र में नज़्म का चलन 'ग़ालिब'-ओ-'मीर' का है फ़न
एक सुख़न में कीजिए पेश यहाँ कलाम दो
मतीन अमरोहवी
ग़ज़ल
'ग़ालिब'-ओ-'मीर' से कहने को बचा ही क्या है
फिर भी कुछ लोग क़लम तोड़ के रख देते हैं
फ़राज़ हसनपूरी
ग़ज़ल
'ग़ालिब'-ओ-'मीर' से कहने को बचा ही क्या है
फिर भी कुछ लोग क़लम तोड़ के रख देते हैं
सुलैमान फ़राज़ हसनपूरी
ग़ज़ल
मीर-ए-महफ़िल को गवारा नहीं ये तर्ज़-ए-कलाम
शम'-ए-कुश्ता को जो ‘उनवान-ए-सहर दे कोई