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ग़ज़ल
अनोखी वज़्अ है सारे ज़माने से निराले हैं
ये आशिक़ कौन सी बस्ती के या-रब रहने वाले हैं
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
महव-ए-हैरत हूँ कि आख़िर ये तमाशा क्या है
सुब्ह ख़ुद पूछ रही है कि उजाला क्या है
हबीब अहमद अंजुम दतियावी
ग़ज़ल
समा सकता नहीं पहना-ए-फ़ितरत में मिरा सौदा
ग़लत था ऐ जुनूँ शायद तिरा अंदाज़ा-ए-सहरा
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
मुश्ताक़ ही दिल बरसों उस ग़ुंचा-दहन का था
यारो मिरे और उस के कब रब्त सुख़न का था