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ग़ज़ल
मौज-ए-ख़ूँ-नाब जब सर से ऊँची हुई इस तरह भी हुआ
शहरयारों की दस्तार ख़ाशाक मिल कर बहा ले गए
इशरत आफ़रीं
ग़ज़ल
जश्न-ए-ख़ूँ-नाब है मक़्तल में मुग़न्नी से कहो
कोई इक राग नया गीत हो मल्हार के साथ
उम्मीद ख़्वाजा
ग़ज़ल
जब से पहना है नए मौसम ने ज़ख़्मों का लिबास
फूल से खिलने लगे हैं दीदा-ए-ख़ूँ-नाब में
प्रेम वारबर्टनी
ग़ज़ल
होंट सिल जाएँ तो क्या आँख तो रौशन है मिरी
चश्म-ए-ख़ूँ-नाब का हर अश्क रवाँ है अब के
अनवर महमूद खालिद
ग़ज़ल
चश्म-ए-अंजुम पे नहीं अब्र से वो रोज़-ए-सियाह
जो मिरे दीदा-ए-ख़ूँ-नाब-चकाँ पर आया
मोहम्मद रफ़ी सौदा
ग़ज़ल
ख़ुदा के सामने ऐ मोहतसिब सच बोलना होगा
मिरे साग़र में मय देखी है या ख़ूँ-नाब देखा है