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ग़ज़ल
मय-कदे में आज इक दुनिया को इज़्न-ए-आम था
दौर-ए-जाम-ए-बे-ख़ुदी बेगाना-ए-अय्याम था
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
ये इज़्न-ए-आम है ऐ वाइ'ज़ो आओ वुज़ू कर लो
ख़ुदा का नाम ले कर बैअ'त-ए-दस्त-ए-सुबू कर लो
रिफ़अत ल क़ासमी
ग़ज़ल
वो जनाज़े पर मिरे किस वक़्त आए देखना
जब कि इज़्न-ए-आम मेरे अक़रिबा कहने को हैं
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
आज मयख़ाने में इज़्न-ए-आम था साक़ी तिरे
इस लिए दुनिया इधर आई थी और कुछ भी नहीं
शिव चरन दास गोयल ज़ब्त
ग़ज़ल
नज़ारा यूँ हो कि नज़रों की तिश्नगी न बुझे
ये शर्त-ए-ख़ास भी रख दी है इज़्न-ए-आम के साथ
जोहर सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
बरून-ए-मय-कदा ही क्यों ये रोक-टोक पूछ-ताछ
तिरी तरफ़ से साक़िया अगरचे इज़्न-ए-आम है
सरशार होश्यारपुरी
ग़ज़ल
दर-ए-ख़ेमा खुला रक्खा है गुल कर के दिया हम ने
सो इज़्न-ए-आम है लो शौक़-रुख़्सत कौन रखता है
ऐतबार साजिद
ग़ज़ल
क़दर हो क्या ख़ाक उस के घर में आँधी के सी आम हैं दिल
आशिक़ टूटे पड़ते हैं हर रोज़ का इज़्न-ए-आम बुरा
शौक़ क़िदवाई
ग़ज़ल
महफ़िल-ए-मय है तिश्ना-लबी है पास-ए-अदब तो लाज़िम है
माना कि इज़्न-ए-आम है साक़ी बढ़ के जाम उठाए कौन