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ग़ज़ल
सर-ए-तस्लीम है ख़म इज़्न-ए-उक़ूबत के बग़ैर
हम तो सरकार के मद्दाह हैं ख़िलअत के बग़ैर
इरफ़ान सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
कई बार उस ने देखा आज चश्म-ए-क़हर से हम को
सज़ा-वार-ए-उक़ूबत तो हुए ऐ बख़्त बारे हम
जुरअत क़लंदर बख़्श
ग़ज़ल
नाज़ थे क्या क्या उरूज-ए-नय्यर-ए-इक़बाल पर
दोपहर के बा'द देखा वक़्त-ए-शाम आ ही गया
रशीद शाहजहाँपुरी
ग़ज़ल
बशीर बद्र
ग़ज़ल
न इज़्न-ए-आह-ओ-फ़ुग़ाँ है कि नौहा-ए-हस्ती
किसे सुनाएँ जो अल्फ़ाज़ ख़ूँ-चकीदा हैं
मुसर्रत जबीं ज़ेबा
ग़ज़ल
जब ख़िलाफ़-ए-मस्लहत है इज़्न-ए-‘अर्ज़-ए-मुद्दआ
ख़ुद-कलामी ही सिखा दे ज़िंदगी ऐ ज़िंदगी
उरूज ज़ेहरा ज़ैदी
ग़ज़ल
है दबाव अश्रा हवास पर हैं तमाम उज़्व खिंचे रबर
हूँ उथल-पुथल से घिरा मगर मुझे इज़्न-ए-रद्द-ए-अमल नहीं
तफ़ज़ील अहमद
ग़ज़ल
हम इज़्न-ए-अर्ज़-ए-हाल पे अब कश्मकश में हैं
दिल को ये ज़िद है शौक़ का दफ़्तर ही ले चलें