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ग़ज़ल
अगर क़ब्रें नज़र आतीं न दारा-ओ-सिकन्दर की
मुझे भी इश्तियाक़-ए-दौलत-ओ-जाह-ओ-हशम होता
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
शौकत-ए-जाह-ओ-हशम ख़ाक अजल के हाथों
दहर में फिर कोई क्यों औज-ए-सिकंदर माँगे
अब्दुल क़य्यूम ज़की औरंगाबादी
ग़ज़ल
दो-चार दिन की बात नहीं ऐ हुजूम-ए-शौक़
मिलता है हुस्न-ए-जाह-ओ-हशम मुद्दतों के बाद
सिब्तैन शाहजहानी
ग़ज़ल
न हुब्ब-ए-जाह-ओ-हशम है न माल-ओ-ज़र की तलाश
दर-ए-फ़क़ीर पे किस ने ये ताज रक्खा है