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ग़ज़ल
बहुत से अश्क-ए-रंगीं ऐ 'जलाल' इस आँख से टपके
मगर बे-रंग ही देखा न कुछ रंग-ए-असर पाया
जलाल लखनवी
ग़ज़ल
'जलाल'-ए-बे-नवा मुश्किल-पसंद अपनी तबीअत है
इसी बाइ'स घिरे दिन रात हम मुश्किल में रहते हैं
क़ाज़ी जलाल हरीपुरी
ग़ज़ल
'जलाल'-ए-बे-नवा सर पर ये क्या वक़्त-ए-ख़राब आया
क़लम को उँगलियों से थामना भी बार होता है
क़ाज़ी जलाल हरीपुरी
ग़ज़ल
ब-रंग-ए-काह चाहा हासिदों ने पीस ही डालें
'जलाल'-ए-बे-नवा को मुतमइन जब अपने घर देखा
क़ाज़ी जलाल हरीपुरी
ग़ज़ल
'जलाल'-ए-बे-नवा ज़ौक़-ए-सुख़न-गोई न गर बदला
तो फिर इन बे-मज़ा शे'रों से तेरा नाम क्या होगा