तसव्वुर हम ने जब तेरा किया पेश-ए-नज़र पाया
तसव्वुर हम ने जब तेरा किया पेश-ए-नज़र पाया
तुझे देखा जिधर देखा तुझे पाया जिधर पाया
कहाँ हम ने न इस दर्द-ए-निहानी का असर पाया
यहाँ उट्ठा वहाँ चमका इधर आया उधर पाया
पता उस ने दिया तेरा मिला जो इश्क़ में ख़ुद गुम
ख़बर तेरी उसी से पाई जिस को बे-ख़बर पाया
दिल-ए-बेताब के पहलू से जाते ही गया सब कुछ
न पाईं सीने में आहें न आहों में असर पाया
वो चश्म-ए-मुंतज़िर थी जिस को देखा आ के वा तुम ने
वो नाला था हमारा जिस को सोते रात भर पाया
मैं हूँ वो ना-तवाँ पिन्हाँ रहा ख़ुद आँख से अपनी
हमेशा आप को गुम सूरत-ए-तार-ए-नज़र पाया
हबीब अपना अगर देखा तो दाग़-ए-इश्क़ को देखा
तबीब अपना अगर पाया तो इक दर्द-ए-जिगर पाया
क्या गुम हम ने दिल को जुस्तुजू में दाग़-ए-हसरत की
किसी को पा के खो बैठे किसी को ढूँढ कर पाया
बहुत से अश्क-ए-रंगीं ऐ 'जलाल' इस आँख से टपके
मगर बे-रंग ही देखा न कुछ रंग-ए-असर पाया
- पुस्तक : Intekhab-e-kalam Miir Zamin Ali Jalal (पृष्ठ 16)
- रचनाकार : Sayed Sikandar aaga
- प्रकाशन : Uttarpradesh, Urdu academy, Lucknow (1997)
- संस्करण : 1997
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