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ग़ज़ल
जो मिरे हिस्से में आवे तेग़-ए-जमधर सैल-ओ-कार्द
ये फ़ुज़ूली है कि मैं ही कुश्ता-ए-शमशीर हूँ
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
ये दिल क्यूँकर निगह से उस की छिदते हैं मैं हैराँ हूँ
न ख़ंजर है न नश्तर है न जमधर है न भाला है
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
फ़र्क़ हरगिज़ नहीं जो तुझ से मिलावे आँखें
तीर और ख़ंजर-ओ-जम्धर के ज़ख़म चारों एक
क़ासिम अली ख़ान अफ़रीदी
ग़ज़ल
जिधर जाते हैं सब जाना उधर अच्छा नहीं लगता
मुझे पामाल रस्तों का सफ़र अच्छा नहीं लगता
जावेद अख़्तर
ग़ज़ल
तेरे पहलू से जो उठ्ठूँगा तो मुश्किल ये है
सिर्फ़ इक शख़्स को पाऊँगा जिधर जाऊँगा
अहमद नदीम क़ासमी
ग़ज़ल
लिपट जाती है सारे रास्तों की याद बचपन में
जिधर से भी गुज़रता हूँ मैं रस्ता याद रहता है
मुनव्वर राना
ग़ज़ल
तिरी दुनिया में जीने से तो बेहतर है कि मर जाएँ
वही आँसू वही आहें वही ग़म है जिधर जाएँ