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ग़ज़ल
'सहबा' साहब दरिया हो तो दरिया जैसी बात करो
तेज़ हवा से लहर तो इक जौहड़ में भी आ जाती है
सहबा अख़्तर
ग़ज़ल
सहर-ए-दम किर्चियाँ टूटे हुए ख़्वाबों की मिलती हैं
तो बिस्तर झाड़ कर चादर हटा कर देख लेता हूँ
अहमद मुश्ताक़
ग़ज़ल
है किस के बल पे हज़रत-ए-'जौहर' ये रू-कशी
ढूँडेंगे आप किस का सहारा ख़ुदा के ब'अद