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ग़ज़ल
ख़ुद को कर ख़त्म ही करते हैं वो आग़ाज़ नया
पत्ते वो ज़र्द जो शाख़ों से झड़े हैं सारे
दिव्या जैन
ग़ज़ल
मेहर कूचा तिरा झाड़े है ब-जारूब-ए-शुआ'
कि इसी तरह बहम तुझ से तवस्सुल पहुँचे