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ग़ज़ल
बुरे भले से किसी के ग़रज़ नहीं 'बे-गुन'
हमारा जिस्म है याँ जान कू-ए-यार में है
सिपाह दार ख़ान बेगुन
ग़ज़ल
अब तो मिलते हैं हवा से भी दर-ओ-दीवार-ए-जिस्म
बासियो मुझ से निकल जाओ शिकस्ता-घर हूँ मैं
इफ़्तिख़ार नसीम
ग़ज़ल
साहिलों से दूर जिस दिन कश्तियाँ रह जाएँगी
चार जानिब ख़ाली ख़ाली बस्तियाँ रह जाएँगी