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ग़ज़ल
बहके जो हम मस्त आ गए सौ बार मस्जिद से उठा
वा'इज़ को मारे ख़ौफ़ के कल लग गया जुल्लाब सा
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
शाम है और सुर्ख़ पेड़ों के दहकते साए भी
नींद में बहता हुआ धारा है जू-ए-आब का