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ग़ज़ल
हम और रस्म-ए-बंदगी आशुफ़्तगी उफ़्तादगी
एहसान है क्या क्या तिरा ऐ हुस्न-ए-बे-परवा तिरा
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
अब इस 'आलम में तकमील-ए-मज़ाक़-ए-जुस्तुजू होगी
जहाँ हर गाम पर उन की ही सूरत हू-बहू होगी
हक़्क़ी हज़ीं
ग़ज़ल
शाम तम्हीद-ए-ग़ज़ल रात है तकमील-ए-ग़ज़ल
दिन निकलते ही निकल जाती है जाँ हम-नफ़सो
बद्र-ए-आलम ख़लिश
ग़ज़ल
मैं ने मंज़र ही नहीं देखे हैं पस-मंज़र भी
मुझ में अब जुरअत-ए-दीदार कहाँ से आई
सय्यदा शान-ए-मेराज
ग़ज़ल
जुरअत-ए-अर्ज़-ए-तमन्ना मुझे क्यों कर हो 'कँवल'
ख़ातिर-ए-हुस्न पे हर बात गिराँ गुज़री है
कँवल एम ए
ग़ज़ल
लिखीं जब कातिब-ए-तक़दीर ने बंदों की तक़दीरें
मिरे हिस्से में इज्ज़ और उन के हिस्से में ग़ुरूर आया
नरेश एम. ए
ग़ज़ल
लोटता है 'जुरअत'-ए-बेताब जाने से तिरे
यूँ उसे तड़पा के तू ऐ शोख़-ए-बे-परवा, न जा
जुरअत क़लंदर बख़्श
ग़ज़ल
नक़ाब उठने की जुरअत कहीं न कर बैठे
बढ़ाए क्यूँ दिल-ए-मुज़्तर का इज़्तिरार लिहाज़