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ग़ज़ल
ख़ुद अपना फ़ैसला भी इश्क़ में काफ़ी नहीं होता
उसे भी कैसे कर गुज़रें जो दिल में ठान लेते हैं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
मय-कदे में क्या तकल्लुफ़ मय-कशी में क्या हिजाब
बज़्म-ए-साक़ी में अदब आदाब मत देखा करो
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
ग़ाफ़िलों के लुत्फ़ को काफ़ी है दुनियावी ख़ुशी
आक़िलों को बे-ग़म-ए-उक़्बा मज़ा मिलता नहीं