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ग़ज़ल
मैं ने कहा कि अब्र में आता है चाँद किस तरह
छोड़ के मुँह पे काकुलें उस ने दिखा दिया कि यूँ
मलिका आफ़ाक़ ज़मानी बेगम
ग़ज़ल
कभी तो सुब्ह तिरे कुंज-ए-लब से हो आग़ाज़
कभी तो शब सर-ए-काकुल से मुश्क-बार चले
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
जौन एलिया
ग़ज़ल
उलझ पड़ने में काकुल हो बिगड़ने में मुक़द्दर हो
पलटने में ज़माना हो बदलने में हवा तुम हो