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ग़ज़ल
कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को
ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
तिश्ना-ए-ख़ूँ है अपना कितना 'मीर' भी नादाँ तल्ख़ी-कश
दम-दार आब-ए-तेग़ को उस के आब-ए-गवारा जाने है
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
हर्फ़ नहीं जाँ-बख़्शी में उस की ख़ूबी अपनी क़िस्मत की
हम से जो पहले कह भेजा सो मरने का पैग़ाम किया
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
न पूछ 'इक़बाल' का ठिकाना अभी वही कैफ़ियत है उस की
कहीं सर-ए-रहगुज़ार बैठा सितम-कश-ए-इंतिज़ार होगा