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ग़ज़ल
गिरामी चिश्ती
ग़ज़ल
जारी है कब से मा'रका ये जिस्म-ओ-जाँ में सर्द सा
छुप छुप के कोई मुझ में है मुझ से ही हम-नबर्द सा
ज़फ़र गौरी
ग़ज़ल
है ज़बाँ पर क़ुफ़्ल कह सकता नहीं तू हाल-ए-दिल
होंट सीने से अनादिल की चहक जाती है कब
सलमान ग़ाज़ी
ग़ज़ल
कमाल-ए-हुस्न का इक़रार कर जाना ही पड़ता है
अदाएँ इतनी काफ़िर हों तो मर जाना ही पड़ता है