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ग़ज़ल
मैं 'काविश'-ए-ला-हर्फ़-ए-तकल्लुम से हूँ नादिम
वो जिस को कि माज़ी का कोई ग़म भी नहीं है
इम्तियाज़ काविश
ग़ज़ल
दिल आया इस तरह आख़िर फ़रेब-ए-साज़-ओ-सामाँ में
उलझ कर जैसे रह जाए कोई ख़्वाब-ए-परेशाँ में