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ग़ज़ल
शाह-ए-हफ़्त-अक़लीम से ऐ दिल गदा-ए-दहर तक
ढंग से आया वहाँ से याँ कढंगा हो गया
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
ग़ज़ल
रात और दिन के बीच कहीं पर जागे सोए रस्तों में
मैं तुम से इक बात कहूँगा तुम भी कुछ फ़रमा देना
रईस फ़रोग़
ग़ज़ल
तिरे इश्क़ में कोई जाँ भी ले तो भी जान-ए-जाँ
मैं यही कहूँगा कि हक़ अदा नहीं हो सका
मुबारक सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
चला जाता तो हूँ मैं बहरूप बन कर उन की महफ़िल में
कहूँगा क्या रसाई गर कहीं मुँह देख कर होगी