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ग़ज़ल
तबीअत की कजी हरगिज़ मिटाए से नहीं मिटती
कभी सीधे तुम्हारे गेसू-ए-पुर-ख़म भी होते हैं
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
कजी जिन की तबीअत में है कब होती वो सीधी है
कहो शाख़-ए-गुल-ए-तस्वीर से किस तरह ख़म निकले
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
है हर एक बात में अब कजी कि चलन निकाले हैं और ही
न वो रब्त है न वो दोस्ती न वो रस्म है न वो राह है
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
किस तरह रिश्तों में आई तल्ख़ियाँ ये फिर कजी
बे-सबब जो तल्ख़ियाँ हैं वो बता कैसे मिटें
शिवकुमार बिलग्रामी
ग़ज़ल
कजी ऐ 'मशरिक़ी' हो दूर क्यूँ कर कज-मिज़ाजों की
नहीं मुमकिन कि पुश्त-ए-आसमान-ए-पीर सीधी हो