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ग़ज़ल
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
कलिमा पढ़ता हुआ क़ब्र में उतरा हूँ मैं
मेरे मज़हब को नकीरैन ने समझा क्या है
मोहम्मद यूसुफ़ रासिख़
ग़ज़ल
कलिमा तेरा सपना तेरा फ़िक्र तिरी और तेरा ख़याल
सिर्फ़ तिरी ही बात ज़बाँ पर और किसी की बात नहीं
जावेद जमील
ग़ज़ल
न क्यूँ कर तेरी यकताई का कलिमा नक़्श हो दिल पर
सबक़ की तरह बरसों ये इबारत हम ने घोटी थी
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
मैं बिना कलिमा पढ़े भी तो मुसलमाँ ठहरा
हाँ मिरे दोश पे ज़ुन्नार है मैं जानता हूँ