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ग़ज़ल
बात बढ़ने को तो बढ़ जाती बहुत लेकिन 'नज़र'
मैं भी कुछ कम-गो था चुप रहने की ख़ू उस की भी थी
ज़ुहूर नज़र
ग़ज़ल
हर नफ़स शाहिद-ए-दुश्वारी-ए-उल्फ़त है 'नज़र'
सख़्त मुश्किल था वही काम जो आसाँ समझा
मुंशी नौबत राय नज़र लखनवी
ग़ज़ल
अक्सर ये सोचता हूँ मैं कम-नज़र नहीं हूँ
ख़लवत-गुज़ीं हूँ गरचे पर बे-ख़बर नहीं हूँ
डॉ. जाफ़र अस्करी
ग़ज़ल
बे-तह मिरी नज़र है कि ख़ुद कम-नज़र हूँ मैं
अज़-बस इसी ख़याल से ज़ेर-ओ-ज़बर हूँ मैं
अमजद अशरफ़ मल्ला
ग़ज़ल
मौसम-ए-गुल में कम-नज़र चुनते रहे हैं ख़ार क्या
हाथ है क्या लहू लहू दामन-ए-तार-तार क्या