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ग़ज़ल
कम ओ बेश एक से पैरहन कम ओ बेश एक सा है चलन
सर-ए-रहगुज़र किसी वस्फ़ का कोई इन्तिख़ाब नहीं रहा
सहर अंसारी
ग़ज़ल
इश्क़ एहसास-ए-कम-ओ-बेश का पाबंद नहीं
जब हवस हो तो ग़म-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ होता है
सय्यद अंजुमन जाफ़री
ग़ज़ल
कब शम्अ' तेरे हुस्न के शो'ले के रू-ब-रू
महफ़िल में कर सके कम-ओ-बेश-ए-ज़िया से बहस
वलीउल्लाह मुहिब
ग़ज़ल
ऐ दिल वालो घर से निकलो देता दावत-ए-आम है चाँद
शहरों शहरों क़रियों क़रियों वहशत का पैग़ाम है चाँद
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
हम तो जब जानें कि काम आए मुसीबत में कोई
वर्ना यूँ कहने को दुनिया में हैं लाखों जाँ-निसार
नरेश एम. ए
ग़ज़ल
इक इम्तिहान-ए-वफ़ा है ये उम्र भर का अज़ाब
खड़ा न रहता अगर ज़लज़लों में क्या करता