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ग़ज़ल
है सवा नेज़े पे उस के क़ामत-ए-नौ-ख़ेज़ से
आफ़्ताब-ए-सुब्ह-ए-महशर है गुल-ए-दस्तार-ए-दोस्त
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
क़ामत-ए-जाँ को ख़ुश आया था कभी ख़िलअत-ए-इश्क़
अब इसी जामा-ए-सद-चाक से ख़ौफ़ आता है
इफ़्तिख़ार आरिफ़
ग़ज़ल
उस ने देखा ही नहीं क़ामत-ए-ज़ेबा तेरा
जो ये कहता हो कि गुलशन में निहाल अच्छा है
मोहम्मद यूसुफ़ रासिख़
ग़ज़ल
भरम खुल जाए ज़ालिम तेरे क़ामत की दराज़ी का
अगर इस तुर्रा-ए-पुर-पेच-ओ-ख़म का पेच-ओ-ख़म निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
क़ामत-ए-बाला का रुत्बा है दो-बाला सर्व से
तुर्रा है सुम्बुल पे ज़ुल्फ़-ए-यार क़ैसर-बाग़ में
वज़ीर अली सबा लखनवी
ग़ज़ल
किया ईमान ताज़ा क़ामत-ए-दिलदार ने ऐसा
'सफ़ीर' अब हम भी इंकार-ए-क़यामत कर नहीं सकते