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ग़ज़ल
जवाब इस बात का उस शोख़ को क्या दे सके कोई
जो दिल ले कर कहे कम-बख़्त तू किस दिल से मिलता है
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
ब-ज़ाहिर सादगी से मुस्कुरा कर देखने वालो
कोई कम-बख़्त ना-वाक़िफ़ अगर दीवाना हो जाए
हफ़ीज़ जालंधरी
ग़ज़ल
बुलाते क्यूँ हो 'आजिज़' को बुलाना क्या मज़ा दे है
ग़ज़ल कम-बख़्त कुछ ऐसी पढ़े है दिल हिला दे है
कलीम आजिज़
ग़ज़ल
मुकम्मल ख़ुद तो हो जाते हैं सब किरदार आख़िर में
मगर कम-बख़्त क़ारी को अधूरा छोड़ देते हैं
शुजा ख़ावर
ग़ज़ल
लगी हो कुछ तो क़ासिद आख़िर इस कम-बख़्त दिल में भी
वहाँ तेरी तरह जो जाएगा नाकाम आएगा
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
हर क़दम के साथ मंज़िल लेकिन इस का क्या इलाज
इश्क़ ही कम-बख़्त मंज़िल-आश्ना होता नहीं