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ग़ज़ल
नर्म-ओ-नाज़ुक था 'करामत' तिरे शेरों का मिज़ाज
वक़्त पड़ने पे मगर शोला-बयानी लिक्खी
करामत अली करामत
ग़ज़ल
'करामत' ऐसे में साँसों का हाल क्या होगा
सिसकते लम्हों की गर्दन मरोड़ते क्यूँ हो
करामत अली करामत
ग़ज़ल
मुझे है ज़ीस्त की तलाश ज़िंदगी के शहर में
तरस रहा हूँ रौशनी को रौशनी के शहर में
करामत अली करामत
ग़ज़ल
'करामत'-ए-हज़ीं फ़रार हो के हाल-ए-ज़ार से
गुज़िश्ता अहद से मिला तो वो लगा है हाल सा
करामत अली करामत
ग़ज़ल
हाथ आ गया है जब से शुऊ'र-ए-ख़ुदी का साँप
सीने पे लोटता है ग़म-ए-ज़िंदगी का साँप