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ग़ज़ल
ज़र्रा ज़र्रा है यहाँ इक कतबा-ए-सिर्र-ए-अलस्त
आप ही वाक़िफ़ नहीं हैं रस्म-ए-ख़त्त-ए-राज़ से
ग़ुलाम भीक नैरंग
ग़ज़ल
बहुत मुश्किल से तहरीकें कभी तारीख़ बनती हैं
किसी पत्थर का नक़्श-ओ-नाम कतबा हो नहीं सकता
क़ौस सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
पल दो पल का साथ है अब रौशनी का चल पड़ें
शाम है इक कतबा-ए-क़ब्र-ए-जवाँ खोले हुए