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ग़ज़ल
देर से क़ुफ़्ल पड़ा दरवाज़ा इक दीवार ही लगता था
उस पर एक खुले दरवाज़े की तस्वीर लगा ली है
ज़ुल्फ़िक़ार आदिल
ग़ज़ल
नूर-ए-सहर ने निकहत-ए-गुल ने रंग-ए-शफ़क़ ने कह दी बात
कितना कितना मेरी ज़बाँ पर क़ुफ़्ल लगाया लोगों ने
कैफ़ भोपाली
ग़ज़ल
है कुशाद-ए-ख़ातिर-ए-वा-बस्ता दर रहन-ए-सुख़न
था तिलिस्म-ए-क़ुफ़्ल-ए-अबजद ख़ाना-ए-मकतब मुझे
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
दरवाज़ा बंद रखते हैं मिस्ल-ए-हुबाब-ए-बहर
क़ुफ़्ल-ए-दुरून-ए-ख़ाना हैं अपने मकाँ में हम
हैदर अली आतिश
ग़ज़ल
क़त्अ मिक़राज़-ए-ख़मोशी से ज़बाँ को कीजिए
क़ुफ़्ल दे कर गंज पर मिफ़्ताह तोड़ा चाहिए