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ग़ज़ल
खाइयाँ हैं खड्डे रोड़े हैं कंकर पत्थर हैं लेकिन
जन्नत के रस्ते लगते हैं सारे रस्ते गाँव के
इफ़्तिख़ार हैदर
ग़ज़ल
अब्दुल अहद साज़
ग़ज़ल
नेकियों से कल मेरी तन्हाइयाँ कहने लगीं
दूर तक जो बन गई हैं खाइयाँ कहने लगीं
प्रमोद पुन्ढ़ीर प्यासा
ग़ज़ल
वही है मेरा मुहाफ़िज़ वही निगहबाँ है
कि मेरे दोनों तरफ़ खाइयाँ हैं और मैं हूँ
रहबर ताबानी दरियाबादी
ग़ज़ल
हमारा ‘अज़्म-ए-मुसम्मम था जो निकल आए
न पूछो राह-ए-वफ़ा में थीं खाइयाँ क्या क्या
ज़की तारिक़ बाराबंकवी
ग़ज़ल
मुझे इश्तिहार सी लगती हैं ये मोहब्बतों की कहानियाँ
जो कहा नहीं वो सुना करो जो सुना नहीं वो कहा करो