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ग़ज़ल
रिदा-ए-लफ़्ज़ चढ़ाता हूँ तुर्बत-ए-दिल पर
ग़ज़ल को ख़ाक-ए-दर-ए-'मीर' करता रहता हूँ
सलीम शुजाअ अंसारी
ग़ज़ल
शर्त-ए-दीवार-ओ-दर-ओ-बाम उठा दी है तो क्या
क़ैद फिर क़ैद है ज़ंजीर बढ़ा दी है तो क्या
अरशद अब्दुल हमीद
ग़ज़ल
दिल में हर-वक़्त ख़याल-ए-दर-ए-जानाना है
या'नी का'बे के मुक़द्दर में सनम-ख़ाना है
विशनू कुमार शाैक़
ग़ज़ल
है क्या संग-ए-दर-ए-जानाँ उसी का दिल समझता है
जो दीवाना तिरी चौखट को मुस्तक़बिल समझता है