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ग़ज़ल
बहर-ए-ख़ुदा ख़ामोश रहो बस देखते जाओ अहल-ए-नज़र
क्या लग़ज़ीदा-क़दम हैं उस के क्या दुज़दीदा-निगाही है
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
बहर-ए-ख़ुदा ख़ामोश रहो बस देखते जाओ अहल-ए-नज़र
क्या लग़ज़ीदा-क़दम हैं उस के क्या दुज़दीदा-निगाही है
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
ख़ामोश निगाहों में क़यामत का असर था
गुज़रा है सुनाता हुआ अफ़्साना सा इक शख़्स