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ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
उफ़ वो आरिज़ जिस के जल्वों पर फ़िदा मेहर-ए-मुबीं
आह वो लब जिन को देते हैं मह ओ अंजुम ख़िराज
अनवर साबरी
ग़ज़ल
और क्या देता भला सहरा-नवर्दी का ख़िराज
तू बचा था अब के तू भी नज़्र-ए-महमिल हो गया