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ग़ज़ल
फ़ना बुलंदशहरी
ग़ज़ल
ख़ुदा जाने ग़ुबार-ए-राह है या क़ैस है लैला
कोई आग़ोश खोले पर्दा-ए-महमिल से मिलता है
जलील मानिकपूरी
ग़ज़ल
तलाश-ए-मंज़िल-ए-मक़्सद की गर्दिश उठ नहीं सकती
कमर खोले हुए रस्ते में हम रहज़न के बैठे हैं
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
बिछड़ के भीड़ में ख़ुद से हवासों का वो आलम था
कि मुँह खोले हुए तकती रहीं परछाइयाँ हम को
अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
ग़ज़ल
मुँह खोले हैं ये ज़ख़्म जो बिस्मिल के चार पाँच
फिर लेंगे बोसे ख़ंजर-ए-क़ातिल के चार पाँच