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ग़ज़ल
तू ख़ुदा है न मिरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा
दोनों इंसाँ हैं तो क्यूँ इतने हिजाबों में मिलें
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
दिल दुखा था मिरा ऐसा कि दिखाया न गया
दर्द इतना था कि ख़ुद उन से बढ़ाया न गया
सय्यद बशीर हुसैन बशीर
ग़ज़ल
ये बे-ख़ुद-ए-उल्फ़त था दम-ए-सैर-ए-गुलिस्ताँ
शमशाद से लिपटा क़द-ए-दिलदार समझ कर
असद अली ख़ान क़लक़
ग़ज़ल
शौक़ बहराइची
ग़ज़ल
बे-ख़ुद-ए-जल्वा कभी और कभी हुशियार रहा
कभी मा'बूद कभी ख़ुद को मैं बंदा समझा