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ग़ज़ल
जब तुम से मोहब्बत की हम ने तब जा के कहीं ये राज़ खुला
मरने का सलीक़ा आते ही जीने का शुऊ'र आ जाता है
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
तू ख़ुदा है न मिरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा
दोनों इंसाँ हैं तो क्यूँ इतने हिजाबों में मिलें
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
अब जा के कुछ खुला हुनर-ए-नाख़ुन-ए-जुनूँ
ज़ख़्म-ए-जिगर हुए लब-ओ-रुख़्सार की तरह
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
एक वज़ाहत के लम्हे में मुझ पर ये अहवाल खुला
कितनी मुश्किल पेश आती है अपना हाल बताने में
अज़्म बहज़ाद
ग़ज़ल
मुझे आप क्यूँ न समझ सके ये ख़ुद अपने दिल ही से पूछिए
मिरी दास्तान-ए-हयात का तो वरक़ वरक़ है खुला हुआ
इक़बाल अज़ीम
ग़ज़ल
क्या कहें उल्फ़त में राज़-ए-बे-हिसी क्यूँकर खुला
हर नज़र को तेरी दर्द-अफ़ज़ा समझ बैठे थे हम
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
लाल डोरे तिरी आँखों में जो देखे तो खुला
मय-ए-गुल-रंग से लबरेज़ हैं पैमाने दो