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ग़ज़ल
डरे क्यूँ मेरा क़ातिल क्या रहेगा उस की गर्दन पर
वो ख़ूँ जो चश्म-ए-तर से उम्र भर यूँ दम-ब-दम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
रूप-सरूप की जोत जगाना उस नगरी में जोखम है
चारों खूँट बगूले बन कर घोर अंधेरे फिरते हैं
सय्यद आबिद अली आबिद
ग़ज़ल
चौथे खूँट को जा तो रहे हो लेकिन ये वो रस्ता है
तुम ने अगर मुड़ कर देखा तो पत्थर के हो जाओगे
शाहिद इश्क़ी
ग़ज़ल
दिल के गिर्द हिसार खिंचा तो उस का मिलना मुहाल हुआ
चारों खूँट आवारा फिरे जब पाँव भी अपने टूट गए
शफ़क़त तनवीर मिर्ज़ा
ग़ज़ल
तिश्ना-ए-ख़ूँ है अपना कितना 'मीर' भी नादाँ तल्ख़ी-कश
दम-दार आब-ए-तेग़ को उस के आब-ए-गवारा जाने है
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
कहीं चाक-ए-जाँ का रफ़ू नहीं किसी आस्तीं पे लहू नहीं
कि शहीद-ए-राह-ए-मलाल का नहीं ख़ूँ-बहा उसे भूल जा
अमजद इस्लाम अमजद
ग़ज़ल
न तन में ख़ून फ़राहम न अश्क आँखों में
नमाज़-ए-शौक़ तो वाजिब है बे-वुज़ू ही सही