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ग़ज़ल
ख़ुदी की शोख़ी ओ तुंदी में किब्र-ओ-नाज़ नहीं
जो नाज़ हो भी तो बे-लज़्ज़त-ए-नियाज़ नहीं
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
जिस क़दर झुक झुक के मिलते हैं बुज़ुर्ग ओ ख़ुर्द से
किब्र ओ नाज़ उतना ही अपने में सिवा पाते हैं हम
अल्ताफ़ हुसैन हाली
ग़ज़ल
किया नमरूद ने गो किब्र से दावा ख़ुदाई का
कहीं उस का ये दा'वा पेश जा सकता है क्या क़ुदरत
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
वही किब्र है मिरी ख़ाक में वही जहल है मिरी ज़ात में
जो शरार है वो बुझा नहीं जो चराग़ है वो जला नहीं
एहतिशामुल हक़ सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
'सीमाब' किब्र-ओ-नाज़ का अंजाम कुछ न पूछ
सब रफ़्ता रफ़्ता गोर-ए-ग़रीबाँ में आ गए
सीमाब अकबराबादी
ग़ज़ल
अस्ल में एक ही कैफ़िय्यत की दो तस्वीरें हैं
तेरा किब्र-ओ-नाज़ हो या हो मेरा जज़्ब-ए-नियाज़
जगन्नाथ आज़ाद
ग़ज़ल
किब्र-ओ-नख़वत है ये किस चीज़ पे बतला वो मुझे
ख़ाक है तेरी बिना क्या है हक़ीक़त तेरी
जमीला ख़ुदा बख़्श
ग़ज़ल
हुई या मुझ से नफ़रत या कुछ इस में किब्र-ओ-नाज़ आया
कभी वो मुस्कुरा देता था अब इस से भी बाज़ आया
शौक़ क़िदवाई
ग़ज़ल
किब्र भी है शिर्क ऐ ज़ाहिद मुवह्हिद के हुज़ूर
ले के तेशा ख़ाकसारी का बुत-ए-पिंदार तोड़