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ग़ज़ल
क़ब्र और शह्र में कुछ फ़र्क़ नहीं है 'सानी'
बस यही रोज़ कहीं सुब्ह को जाते हुए हम
महेंद्र कुमार सानी
ग़ज़ल
आह-ए-सोज़ाँ सीं मिरे दामन-ए-सहरा में 'सिराज'
क़ब्र-ए-मजनूँ पे चराग़ाँ न हुआ था सो हुआ
सिराज औरंगाबादी
ग़ज़ल
ख़ाक थे ग़ुंचा-लब और ख़्वाब थी लहजे की खनक
झड़ गया क़ब्र में जब हुस्न-ए-सरापा का नमक
ख़ालिद इक़बाल ताइब
ग़ज़ल
इस दौर में हर इक तह-ए-चर्ख़-ए-कुहन लुटा
औरों का ज़र लुटा मिरा नक़्द-ए-सुख़न लुटा
हातिम अली मेहर
ग़ज़ल
मिरे सीने में रह कर ख़ुद मुझी से दुश्मनी कब तक
दिल-ए-नादान खाएगा फ़रेब-ए-दोस्ती कब तक
अनवार अहमद क़ुरैशी नश्तर
ग़ज़ल
उस के सीने से लगा मैं तो खुली क़ब्र में आँख
ख़त्म ही हो गया बोतल पे शराबी का सफ़र