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ग़ज़ल
जामा-ए-उल्फ़त बुनते आए रिश्तों के धागों से हम
उम्र की क़ैंची काट गई अब काहे को इतनी मेहनत की
ज़ेहरा निगाह
ग़ज़ल
नज़ीर बनारसी
ग़ज़ल
खिंची कंघी गुँधी चोटी जमी पट्टी लगा काजल
कमाँ-अबरू नज़र जादू निगह हर इक दुलारी है
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
हाँ वही तस्वीर जो खींची थी मैं ने साथ में
हाँ वही तस्वीर कर जाती है अब तन्हा मुझे